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    Home»धर्म/ज्योतिष»भारतीय संस्कृति के जाज्वल्यमान नक्षत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम
    धर्म/ज्योतिष

    भारतीय संस्कृति के जाज्वल्यमान नक्षत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम

    Team JoharBy Team JoharApril 2, 2020No Comments11 Mins Read
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    • अशोक “प्रवृद्ध”

    भारतीय संस्कृति के जाज्वल्यमान नक्षत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम रामायण के आदर्श सर्वगुणसम्पन्न चरित्र हैं । श्रीविष्णु के दशावतारों में सातवें अवतार श्रीराम अयोध्या के राजा दशरथ और रानी कौशल्या के सबसे बडे पुत्र थे। राम की पत्नी का नाम सीता था । सीता लक्ष्मी का अवतार मानी जाती हैं । राम के तीन भाई थे- लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। हनुमान, भगवान राम के, सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं। राम ने राक्षस जाति के राजा रावण का वध किया था । श्रीराम के चरित्र में भारतीय संस्कृति के अनुरूप पारिवारिक और सामाजिक जीवन के उच्चतम आदर्श पाए जाते हैं। उनमें व्यक्तित्व विकास,लोकहित तथा सुव्यवस्थित राज्यसंचालन के समस्त गुण विद्यमान थे। उन्होंने दीनों, असहायों, संतों और धर्मशीलों की रक्षा के लिए जो कार्य किए, आचार- व्यवहार की जो परंपरा कायम की, सेवा और त्याग का जो उदाहरण प्रस्तुत किया तथा न्याय एवं सत्य की प्रतिष्ठा के लिए वे जिस तरह अनवरत प्रयत्नवान्‌ रहे, जिससे उन्हें भारत के जन-जन के मानस मंदिर में अत्यंत पवित्र और उच्च आसन पर आसीन कर दिया है। बचपन से ही शान्‍त स्‍वाभाव के वीर पुरूष श्रीराम ने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया था। इसी कारण उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की संज्ञा से अभिहित किया गया है। उनका राज्य न्‍यायप्रिय और खुशहाल माना जाता था। यही कारण है कि भारत में जब भी सुराज की बात होती है, रामराज या रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। श्रीराम का जन्म दिवस चैत्र शुक्ल नवमी को माना जाता है और वर्तमान में राम का जन्म दिन, रामनवमी के रूप में मनाया जाता है।

    वाल्मीकि रामायण में श्रीराम का उज्ज्वल चरित्र वर्णित है। वाल्मीकि के राम संभाव्य और इस संसार के वास्तविक चरित्र लगते हैं। कालान्तर में अनेक कवियों एवं लेखकों ने उनके जीवन चरित्र मनमाने ढंग से लिखकर ऐसे गल्प जोड़ दिए कि श्रीराम एक काल्पनिक चरित्र लगने लगे। जिस प्रकार श्रीकृष्ण जैसे महान्‌ योगी को अनेक कवियों और लेखकों ने लम्पट और कामी लिख दिया, उसी प्रकार श्रीराम जैसे आदर्श सर्वगुणसम्पन्न चरित्र को आम जनता से बहुत दूर ले जाकर पटक दिया। राम ही नहीं रामायण के अन्य पात्रों के साथ इन कवियों, लेखकों तथा अन्धभक्तों द्वारा बड़ा भारी अन्याय किया गया है। चाहे वह दशरथ हो, कौशल्या, केकैयी, सुमित्रा, सीता, लक्ष्मण, भरत, बाली, सुग्रीव, हनुमान या रावण और विभीषण ही क्यों न हों। स्मरणीय है कि श्रीराम का जीवनकाल एवं पराक्रम, महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित, संस्कृत महाकाव्य रामायण के रूप में लिखा गया है। उन पर तुलसीदास ने भी भक्ति काव्य श्री रामचरितमानस रचा था। इसके साथ ही श्रीराम से सम्बन्धित सैंकड़ों ग्रन्थ विभिन्न विद्वानों के द्वारा समय-समय पर रचे गये हैं। भारत में राम बहुत अधिक पूजनीय हैं और आदर्श पुरुष माने जाते हैं।स्मरणीय हो कि रामायण महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित एक जीवन चरित है। जिसके नायक भगवान श्रीराम किसी कल्पना लोक के पात्र नहीं वरन रघुकुल के एक महाराजा थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार आदिकालीन मनु के सात पुत्र थे जिनकी एक शाखा में भागीरथ, अंशुमान, दिलीप और रघु आदि हुए और दूसरी शाखा में सत्यवादी हरिश्चन्द्र आदि। वैवस्वत मनु के इसी वंश का नाम आगे चलकर सूर्यवंश हुआ, जिसमें श्रीराम ने अयोध्या में जन्म लिया। श्रीराम एक आदर्श पुत्र, पति, सखा, भ्राता थे। वे वीर, धीर और सर्वमर्यादाओं से विभूषित थे। मूलरूप में वे एक नीतिवान, आदर्शवादी, दयालु, न्यायकारी और कुशल महाराजा थे। बाकी समस्त गुण तो उनके पीछे-पीछे अनुसरण करते थे। वे मात्र धार्मिक नेता या महापुरुष नहीं थे, बल्कि धर्म तो उनके जीवन के एक-एक कार्यकलाप से स्वयं झलकता था। वैदिक धर्म से विभूषित आर्य पुरुष श्रीराम इतने कुशल राजा थे कि इनके राज्य को एक आदर्श राज्य माना गया है।

    वाल्मीकि कृत रामायण के सांगोपांग अध्ययन से स्पष्ट होता है कई भगवान श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन वेदमय था। कुछ वैदिक शब्द राम के जीवन में पूर्णतः लागू होते हैं। उनमें से एक शब्द सामवेद मंत्र 185 में आया शब्द मित्र है।मित्रता का गुण उनमे कूट- कूटकर भरा था। मित्र का अर्थ है, जिनका स्नेह प्रत्येक प्रकार से त्राण करने वाला होता है। ऐसे महापुरुष अपने सम्पर्क में आने वालों को बुराई से बचाते हैं और उनके सद्‌गुणों की प्रशंसा करते हैं। संकट आने पर इसके प्रत्युपकारों में प्राणपण से सहायता करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर तो सब कुछ दे देते हैं। श्रीराम की इस प्रकार की मित्रता का उदाहरण सुग्रीव के साथ मिलता है। महात्मा राम सुग्रीव को कितना प्रेम करते थे तथा उसकी सुरक्षा का उनको कितना ध्यान रहता था, यह लंका में युद्ध की तैयारी के समय की एक छोटी सी घटना से स्पष्ट हो जाता है। समुद्र पार करके वानर सेना जब लंका में पहुंची तो राम सुग्रीव के साथ सुमेरु पर्वत पर खड़े कुछ निरीक्षण कर रहे थे कि पल भर में देखते ही देखते सुग्रीव पहाड़ से छलांग मारकर रावण के पास जा पहुँचा और कुछ जली-कटी सुनाकर रावण के साथ तीन-पांच कर रहा था तो आर्यपुत्र राम को बड़ी घबराहट हो रही थी तथा नाना प्रकार के विचार उनके मन को चिन्तित कर रहे थे। परन्तु ज्योंही सुग्रीव वापस सुमेरु पर्वत पर राम के पास आया, तो राम ने कहा, प्यारे सुग्रीव, मेरे साथ परामर्श किये बिना तुमने जो यह साहसिक कार्य किया, इस प्रकार का साहस राजा लोगों को करना उचित नहीं है। हे वीर! अब बिना विचारे इस प्रकार के काम मत करना। यदि तुम्हें कुछ हो जाता (कुछ क्षति हो जाती) तो मुझे सीता को प्राप्त करने का फिर क्या प्रयोजन था। हे महाबाहो! भरत-लक्ष्मण से और छोटे भाई शत्रुघ्न से और यहॉं तक कि अपने जीवन से फिर मुझे क्या मतलब रहता।सुग्रीव से श्रीराम ने आगे कहा, यदि किन्हीं कारणों से तुम वापस आने में असमर्थ होते, तो मैंने निश्चय कर लिया था कि युद्ध में रावण को परिवार और सेना सहित मारकर विभीषण का लंका में राजतिलक करके और अयोध्या का राज्य भरत को सौंपकर मैं अपना शरीर त्याग देता।इसी प्रकार रावण के अनुज विभीषण के साथ भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की आत्मीयता थी। लंका के युद्ध में मेघनाद के द्वारा वीर लक्ष्मण के आहत और मूर्च्छित होने पर राम ने जहॉं और अधूरे काम को देखकर खिन्नता प्रकट की तो वहॉं विभीषण को दिये वचन का पूर्ण न होना उन्हें (राम) सबसे अधिक खटक रहा था। विभीषण का ध्यान कर उन्होंने कहा-
    यन्मया न कृतोराजा लंकायां हि विभीषणः।

    अर्थात- मैं लंका का राज्य विभीषण को न दे सका, इसका मुझे बहुत खेद है। ऐसे मित्र भला आज कहॉं मिलेंगे। आज तो पेट में छुरा घोंपने वाले मित्र रूप में शत्रु चहुं ओर विचरण करते दीख पड़ते हैं।

    भगवान श्रीराम बड़े नीतिमान, पारखी और अपनी दूरदर्शिता से क्षण भर में विषम परिस्थितियों को सुलझाने में बड़े कुशल व सिद्धहस्त थे। लंका में रावण के मरने पर राम की सेना में जब विजय के बाजे बजने लगे, तो अकस्मात्‌ ही बालि पुत्र योद्धा अंगद आवेश में भरा हुआ राम को आकर बोला कि, यह विजय के बाजे बन्द कर दिये जायें, यह विजय आपकी न होकर मेरी अपनी विजय है। आवेश में आये अंगद ने कहा कि मेरे पिता के दो शत्रु थे- एक लंकापति रावण, दूसरे उनकी हत्या करने वाले आप। मैंने आपको पूर्ण सहयोग देकर एक योग्य पुत्र के नाते अपने पिता के एक शत्रु रावण को समाप्त कर दिया। इस प्रकार पिता का आधा ऋण तो मैंने चुका दिया, शेष आधा आपको युद्ध में पराजित करके चुकाना है। अतः अब मेरा और आपका युद्ध होगा। राम ने बड़ी दूरदर्शिता से इस विकट परिस्थिति को चुटकियों में सुलझा दिया। उन्होंने अंगद की पीठ थपथपाते हुए कहा कि निश्चय ही तुम वीर पिता के अनुव्रत पुत्र हो और सचमुच मैं इस विजय को तुम्हारी ही विजय स्वीकारता हूँ। परन्तु मैं भी अपने को इस विजय का भागीदार समझता हूँ। राम ने कहा- अंगद! तुम्हें स्मरण हो कि जीवन के अन्तिम क्षणों में तुम्हारे पिता ने तुमको मुझे सौंपते हुए मुझसे वचन लिया था कि मैं तुम्हें अपने पुत्र की तरह संरक्षण दूं। इस प्रकार तुम मेरे पुत्र हो और शास्त्रों का यह कहना है कि-

    सर्वस्माज्जयमिच्छेत्‌ पुत्रादिच्छेत्‌ पराजयम्‌।

    सबसे जीतने की इच्छा करे, परन्तु पुत्र से हारने की कामना करे। इस रूप में तुम जीते और मैं हारा। तुम्हारी इस जीत में मैं भी सम्मिलित होता हूँ। मुझे दूसरी प्रसन्नता यह है कि मैं तुम्हारे पिता को दिये गए वचन का पालन कर सका।

    मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बड़े पारखी भी थे और शरणागत को निर्भयता भी प्रदान कर दिया करते थे। जब रावण ने अपने भाई महात्मा विभीषण द्वारा कही गई सीता जी को आदरपूर्वक लौटाने की बात न मानी तो रावण से अपमानित होकर जब विभीषण राम के दल में राम से मिलने आया तो केवल रामचन्द्र जी को छोड़कर शेष सबका यही मत था कि यह शत्रु का भाई है। अतः इसका कुछ भी विश्वास न करना चाहिए। बड़ी तर्क-वितर्क के बाद राम ने विभीषण के अभिवादन करने के बारे में कहा-

    आकारश्छाद्यमानोऽपि न शक्यो विनिगूहितुम्‌।
    बलाद्धि विवृणोत्येव भावमन्तर्गतं नृणाम्‌।।

    अर्थात- मनुष्य अपने आकार को छिपाने की कोशिश करने पर भी नहीं छिपा सकता, क्योंकि अन्दर के विचार बलपूर्वक आकर आकृति पर प्रकट होते रहते है। अतः राम ने विभीषण का स्वागत करके उसको लंकेश कहकर, उसके भावों का जाना और आगे चलकर शत्रु के इसी भाई ने राम की पूरी सहायता की।

    राम के पराक्रम सौंदर्य से भी अधिक व्यापक प्रभाव उनके शील और आचार -व्यवहार का पड़ा जिसके कारण उन्हें अपने जीवनकाल में ही नहीं, वरन्‌ बाद के युग में भी ऐसी लोकप्रियता प्राप्त हुई जैसी विरले ही किसी व्यक्ति को प्राप्त हुई हो। वे आदर्श पुत्र, आदर्श पति, स्नेहशील भ्राता और लोकसेवानुरक्त, कर्तव्यपरायण राजा थे। माता पिता का वे पूर्ण समादर करते थे। प्रात: काल उठकर पहले उन्हें प्रणाम करते, फिर नित्यकर्म स्नानादि से निवृत्त होकर उनकी आज्ञा ग्रहण कर अपने काम काज में जुट जाते थे। विवाह हो जाने के बाद राजा ने उन्हें युवराज बनाना चाहा, किंतु मंथरा दासी के बहकाने से विमाता कैकेयी ने जब उन्हें चौदह वर्ष का वनवास देने का वर राजा से माँगा तो विरोध में एक शब्द भी न कहकर वे शीघ्र ही वन गमन हेतु तैयार हो गए। श्रीराम पूरे योगी थे और हर्ष-विषाद में वह एक समान व्यवहार करते थे। राज्याभिषेक का समाचार पाकर वह फूलकर कुप्पा नहीं हुए अैर वन जाने की आज्ञा पाकर किसी तरह के विषाद के कारण उनकी आकृति पर कोई विकार नहीं आया।यह तो सर्वविदित है कि वह कितने महान्‌ आज्ञाकारी पुत्र थे और भाई भरत से तथा माता केकैयी से भी कितना प्रेम करते थे। एक प्रसंग में राम ने कहा कि मैं अपने भाई भरत के लिए हर्षपूर्वक सीता, राज्य, प्राप्य, इष्ट पदार्थ एवं धन सब कुछ स्वयं ही दे सकता हूँ। फिर राजा के कहने पर और तुम्हारा (केकैयी) प्रिय करने के लिए तो क्यों नहीं दूंगा। यही नहीं केकैयी को राम ने यह भी कहा कि मैं पिता जी की आज्ञा से अग्नि में भी प्रवेश कर सकता हूँ। हलाहल विष का पान कर सकता हूँ और समुद्र में कूद सकता हूँ। राम एक बात कहकर दूसरी बात कभी नहीं कहा करता।श्रीराम जी प्रजा को पुत्र समान प्यार करते थे और प्रजा जन भी उनको पिता से भी अधिक पालन-पोषण करने वाले मानते थे। उनके राज्य की विशेषताएं महर्षि वाल्मीकि तथा सन्त तुलसीदास जी ने बड़े मनोहर भाव भरे शब्दों में वर्णित की हैं। यही कारण था कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात्‌ महात्मा गांधी भारत में भी रामराज्य सा राज्य स्थापित करने के स्वप्न लिया करते थे और वर्तमान में भी कुछ बुद्धिजीवी व राजनितिक दल रामराज्य की बात करते रहते हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित श्री राम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्रा, माता पिता, यहाँ तक की पत्नी का भी साथ छोड़ा । स्वयं श्रीराम और इनका परिवार आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। राम रघुकुल में जन्में थे, और रघुकुल की परंपरा प्राण जाए पर वचन ना जाये की थी। पिता दशरथ ने सौतेली माता कैकेयी को उसकी दो इच्छा अर्थात वर पुरे करने का वचन दिया था। कैकेयी ने इन वर के रूप में अपने पुत्र भरत को अयोध्या का राजा और राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्शपत्नी का उदहारण प्रस्तुत करते हुए पति के साथ वन जाना पसंद किया। सौतेला भाई लक्ष्मण ने भी भाई का साथ दिया। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरणपादुका ले आए और फिर इसे ही राज गद्दी पर रख कर राज-काज किया। राम की पत्नी सीता को रावण हरण कर ले गया। राम ने वानर जनजाति के लोगों की मदद से सीता को ढूंढा। समुद्र में पुल बना कर रावण के साथ युद्ध किया। उसे मार कर सीता को वापस लाये। जंगल में राम को हनुमान जैसा दोस्त और भक्त मिला जिसने राम के सारे कार्य पूर्ण कराये। राम के आयोध्या लौटने पर भरत ने राज्य उनको ही सौप दिया। राम न्याय प्रिय थे बहुत अच्छा शासन् किया। इसलिए आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। और यही कारण है कि भारत के कई पर्व-त्यौहार, जैसे दशहरा और दीपावली, राम की जीवन-कथा से जुड़े हुए हैं ।

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